(Struggle for Existence **)
हथेलियों का अपमान
मेरे गालों पर
अब नहीं जड़ता,
न हीं
अवसादों का कीचड
मेरे वस्त्र को गंदा करता है.
तिरस्कार की चटनी से
मेरी थाल सज जाती है,
मुट्ठी भर घृणा से
मेरा पेट भर जाता है.
अपशब्दों का आब
मेरी तृष्णा को पर्याप्त है,
फब्तियां कसती खिड़कियाँ हैं,
अवहेलित करता चारदीवार है.
गुर्राती शाम की सांकलें हैं,
बदबू मारती रात है.
ठेल, धकेल,
और फर्श की बर्फ,
मेरी रोज की नींद का सामान है.
मूलतः
मैं सजीव हूँ.
संवेदनाविहीन,
पर सक्रिय हूँ.
विषम परिस्थितियों में
सिद्धांतों को प्रतिपादित करती,
बिनलुप्त,
कठजीव हूँ.
-अजन्ता
हथेलियों का अपमान
मेरे गालों पर
अब नहीं जड़ता,
न हीं
अवसादों का कीचड
मेरे वस्त्र को गंदा करता है.
तिरस्कार की चटनी से
मेरी थाल सज जाती है,
मुट्ठी भर घृणा से
मेरा पेट भर जाता है.
अपशब्दों का आब
मेरी तृष्णा को पर्याप्त है,
फब्तियां कसती खिड़कियाँ हैं,
अवहेलित करता चारदीवार है.
गुर्राती शाम की सांकलें हैं,
बदबू मारती रात है.
ठेल, धकेल,
और फर्श की बर्फ,
मेरी रोज की नींद का सामान है.
मूलतः
मैं सजीव हूँ.
संवेदनाविहीन,
पर सक्रिय हूँ.
विषम परिस्थितियों में
सिद्धांतों को प्रतिपादित करती,
बिनलुप्त,
कठजीव हूँ.
-अजन्ता
[** 'स्ट्रगल फॉर एग्जिस्टेन्स' (Struggle for Existence) शब्द , महान वैज्ञानिक डार्विन के विकासवाद का एक सिद्धांत है जो उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ऑरिजिन ऑफ स्पीसीज़ (Origin of Species) से लिया गया है .]
अजन्ता जी ! बहुत अच्छी भावपूर्ण कविता के लिये वधाई।
ReplyDeletewww.navgeet.blogspot.com
अजन्ता जी,
ReplyDeleteआपकी पहले की दो कविताएँ "ज़बह" और "जानवर से आदमी" की तरह ही इसे भी पढ़कर ऐसा लगा कि कुछ क्षणों के लिए मेरे चारो तरफ सबकुछ जड़वत हो गया हो.
कविता में वेदना और संवेदना दोनो का चित्रण बहुत ही गहनता से किया गया है. वेदना उस शिखर पर पहुँचती है जहाँ संवेदना शून्य हो जाती है. दृश्य बहुत भयावह है किन्तु अभी भी यह सच समाज में विद्यमान है.
रूपक और उपमाओं का प्रयोग आप सदैव ही बहुत सहजता और सफलता से करती हैं. जो कविता के कला पक्ष को सुन्दरता प्रदान करता है.
एक बेहतरीन और सार्थक कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाईयाँ !
bahut samay bad hi sahi, didi dwara rachit jeevan ka analysis padhne ko mil raha hai.main aisa maanta hun ki har koi inn shabdon ka arth apne apko apne aatm ke hisab se explain karega.your efforts to define life have been so appealing.darwin to ye bata gaye ki aadmi aaya kahan se...aur apki kavita bata rahi hai ki wo jee kaise raha hai ya ab kin cheezon se ghira hua hai ya origin ke bad uska kya haal hai......
ReplyDeleteAjanta ji,
ReplyDeleteमेरी तृष्णा को पर्याप्त है,
मेरी रोज की नींद का सामान है.
Beautiful expressions of compromising and accepting life with satisfaction.
I love this dose for happiness.
VED GUPTA
गहन भावों के अतिसुन्दर अभिव्यक्ति जो सीधे मर्म तक पहुँच निशब्द कर देती है......
ReplyDeleteafter a loooooong period poem from u..
ReplyDeletenice strong expression...
अवसादों का कीचड
ReplyDeleteमेरे वस्त्र को गंदा करता है.
तिरस्कार की चटनी से
मेरी थाल सज जाती है,
मुट्ठी भर घृणा से
मेरा पेट भर जाता है.....
very nice...
bahut dino ke baad aapke blog par kuch padhne ko mila ...thanks for posting such nice poem.....aage bhi ummid karte hai aap continue karti rahengi...
ReplyDeleteअजन्ता जी
ReplyDeleteनमस्कार !
एक लम्बे अंतराल बाद आप के ब्लॉग पे आना हुआ , आप की खूब सूरत अभिव्यक्ति काव्य को सशक्त करती है , बधाई
साधुवाद !
बेह्द गहन भावो की सशक्त अभिव्यक्ति………आप अपने ब्लोग पर फ़ोलोवर का लिंक भी लगा दीजिये।जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग आपको फ़ोलो कर सकें।
ReplyDeleteअजंता जी ,आप की कवितायेँ मन को छूती हैं .बधाई .
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आपकी कविता पढ़ कर अच्छा लगा। अपने भावों को शब्दों में पिरो कर ब्यक्त करने का अंदाज़ और कला आप में खूब है।
ReplyDeleteYou have been silent for quite some time. And now that you have broken it, this persistent din in my ears refuses to die down. "Struggle for existence" surpasses your earlier work. Or does it? Hard to say. Although I have rarely been able to relate to or connect with these topics that you handle so masterfully, I liked the creation. More so, because you manage to create such a vivid picture without experiencing it first hand. That, I suppose, is where lies your success. All the best!
ReplyDeleteAjanta jee
ReplyDeleteBahut he achha laga sab kuch parh kar .
All the best ..!
Dhanayad
Sharang
new delhi
Very very Nice Blogs I like it
ReplyDeletekya khub likha hai....
ReplyDeletekya likhoon ..bhut sajeev aur sahaj likhati hain aap....badhai.
ReplyDeleteना जाने कितने दिनो बाद आपके ब्लाॅग पर आना हुआ, लेकिन वहीं अवसाद और पीड़ा के चिन्ह आज भी उसी तरह विद्यमान है, जिसे देखकर कभी मेरे रूह कांप जाते थे, मुझे आश्चर्य नहीं किंतु एक लौह महिला इन परिस्थितियों का मुकाबल करने में सक्षम है, मेरा हमेशा मानना रहा है। आपकी कविता को मैं अपनी कुछ पंक्तियों के सहारे टिप्पणी का शब्द देते हुये एक कवियित्री की पीड़ा को नमन करना चाहूंगा, संभव है यह पीड़ा भारतीय जनमानस में स्त्रियों की स्थिति को देख आपके कलम से शब्द पाती हो -
ReplyDeleteकोई रोज-रोज नहीं लिखा करता...
कुछ तो वजहें होंगी, कुछ तो अफसाने होंगे ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
निश्चय ही धरती के भीतर,कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।
पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।
पता नहीं क्यों?जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।
कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी,
एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।
ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
Hi, Really great effort. Everyone must read this article. Thanks for sharing.
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