तुम्हें
जिस दिन अपनी गलियों से गुज़रते देखा था,
मेरा दहकता धर्म
गंगोत्री के चरण धर
सुरसरी संग बहने की इच्छा करने लगा था.
मैं सूर्य हूँ.
अपने आकाश में आंखें तरेरे
आग उड़ेले
अडिग बन
छड़ी की नोक पर
सर्वत्र धमकती फिरती हूँ.
किंतु,
हे धवल बादल !
उस दिन
जब तुम्हें बहता देखा था मैंने,
चाहा था
तुम्हारे फाहों में एकबार मुंह छुपा
खुद को संतापहीन कर लूं,
अपनी अकड़ का सारा ताप झर दूं.
मैं बन जाऊं एक बालक,
और बना लूं तुम्हें
अपने घर के अहाते का एक अनदेखा कोना
जिसमें छुप
मैं दुनिया भर के विषादों से लिपटे कागज़ का
एक पेपर प्लेन बनाऊं.
एक नाव
जिसमे अपनी मासूमियत तैराऊँ.
तुम्हीं बताओ !
अपने अस्तित्व का यह कोमल पक्ष
मैं और कित लेकर जाऊं?
हाँ ! मैं हूँ सूर्य !
करती नेतृत्व
रहती अविजित
अपार ऊर्जा निहित.
पर,
मेरे एकमात्र शीतल बादल !
क्या तुम नहीं थामोगे मेरी विनम्रता भी ?
मेरे चेहरे की मलीनता,
क्षण भर की क्षीणता भी ?
क्या नहीं है तुम्हें
मेरी एक दुबकी हुई कुंठा स्वीकार्य?
क्या न होगा तुम्हें
मेरे पल भर का भी ग्रहण
ग्राह्य?
-अजन्ता