Saturday, February 28, 2009

तुम मेरे पास हो...

तुम मेरे पास हो...

तुम ख्याल बन,
मेरी अधजगी रातों में उतरे हो।
मेरे मुस्काते लबों से लेकर...
उँगलियों की शरारत तक।
तुम सिमटे हो मेरी करवट की सरसराहट में,
कभी बिखरे हो खुशबू बनकर...
जिसे अपनी देह से लपेट,
आभास लेती हूँ तुम्हारे आलिंगन का।
जाने कितने रूप छुपे हैं तुम्हारे,
मेरी बन्द पलकों के कोनों में.
जाने कई घटनायें हैं
और गढ़ी हुई कहानियाँ.
जिनके विभिन्न शुरुआत हैं,
परंतु एक ही अंत
स्वप्न से लेकर ...उचटती नींद तक...
मेरे सर्वस्व पर तुम्हारा एकाधिपत्य।

Thursday, February 26, 2009

जमाव

जमाव

तमतमाये सूरज ने मेरे गालों से लिपटी बूंदें सुखा डालीं.
ज़िन्दगी !
तूने जो भी दिया...उसका ग़म अब क्यों हों?
मैं जो हूँ
कुछ दीवारों और काँच के टुकड़ों के बीच.
जहाँ चन्द उजाले हैं.
कुछ अंधेरे घंटे भी.
कुछ खास भी नहीं
जिसमें सिमटी पड़ी रहूँ.
खाली सड़क पर
न है किसी राहगीर का अंदेशा.
तारों से भी डरती हूँ
कि जाने
मेरे आँचल को क्या प्राप्त हो?
फिर भी
हवा तो है!
मेरी खिड़की के बाहर
उड़ती हुई नन्हीं चिड़ियों की कतार भी है।
मेरे लिये
ठहरी ज़मीं है
ढाँपता आसमां है.
ऐ ज़िन्दगी!
तेरे हर लिबास को जब ओढ़ना हीं है
तो उनके रंगों में फ़र्क करने से क्या हासिल ?

Wednesday, February 25, 2009

...और बातें हो जायेंगी

...और बातें हो जायेंगी

आओ...
हम साथ बैठें।
पास बैठें।
कभी खोलूँ
कभी पहनूँ मैं अपनी अँगूठी।
तुम्हारे चेहरे को टिकाए
तुम्हारी ही कसी हुई मुट्ठी।
चमका करे धुली हुई मेज़
हमारे नेत्रों के अपलक परावर्तन से।
और तब तक
अंत: मंडल डबडबाए
प्रश्न उत्तरों के प्रत्यारोपण से।
विद्युत बन बहे
हमारे साँसों के धन-ऋण का संगम
हाँ प्रिय!
नहीं चढ़ायेंगे हम
भावनाओं पर शब्द रूप आवरण।

Monday, February 23, 2009

इस बार

इस बार

अनगिनत आँगन
अनगिनत छत,
अनगिनत दिये
और उनके उजालों का कोलाहल..
इनके बीच
कहीं गुम सी मैं,
कहीं भागने की हठ करता हुआ
लौ सा मचलता मेरा मन...
वो एकाकी
जो तुम्हारे गले लग कर
मुझसे लिपटने आया है
उसकी तपिश में
हिम सी पिघलती मेरी नज़रें...
मुझसे निकलकर
मुझको ही डुबोती हुई...
इस शोर और रौशनी का हाथ पकड़कर,
छलक उठे हैं चाँद पर
मेरी भावनाओं के अक्स,
और उन्हें सहलाते हुए
चन्द प्रतिलक्षित तारे,
फिर कहीं
आच्छादित धुआँ,
असहनीय आवाज़ें,
आभासित अलसाई सुबह,
और उन जमी हुई मोमबत्ती की बूँदों के नीचे
दबी मैं व मेरा सहमा मन.
एक रात अवांछित सी आई है इस बार

Sunday, February 22, 2009

अस्तित्व

अस्तित्व

मुझसे वो पूछता है
कि अब तुम कहाँ हो?
घर के उस कोने से
तुम्हारा निशां धुल गया
है वो आसमां वीरां,
जहाँ भटका करती थी तुम,
कहाँ गया वो हुनर
खुद को उढ़ेलने का?
अपनी ज़िन्दगी का खाँचा बना
शतरंज की गोटियाँ चराती फिरती हो...
कहाँ राख भरोगी?
कहाँ भरोगी एक मुखौटा?
खा गयी एक शीत-लहर
तुम्हारे उबाल को..
अब
तुम्हें भी
इशारों पर मुस्काने की आदत पड़ गयी है।
तुम भी
इस नाली का कीड़ा ही रही
भाती है जिसपर..
वही अदना सी ज़िन्दगी..
वही अदना सी मौत..

Wednesday, February 18, 2009

अनुरोध

अनुरोध

हे बादल!
अब मेरे आँचल में
तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिये
ढेरों मुस्काते रंग.
मेरा ज़िस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ के तले
दबा है.
उस तमतमाये सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान
इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते...
कि
एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की
आस रहती है इन्हें.
बादल!
तुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई
कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?



Monday, February 16, 2009

व्यर्थ विषय

व्यर्थ विषय

क्षणिक भ्रमित प्यार पाकर तुम क्या करोगे?
आकाशहीन-आधार पाकर तुम क्या करोगे?

तुम्हारे हीं कदमों से कुचली, रक्त-रंजित भयी,
सुर्ख फूलों का हार पाकर तुम क्या करोगे?

जिनके थिरकन पर न हो रोने हँसने का गुमां
ऐसी घुंघरू की झनकार पाकर तुम क्या करोगे?

अभिशप्त बोध करता हो जो देह तुम्हारे स्पर्श से,
उस लाश पर अधिकार पाकर तुम क्या करोगे?

तुम जो मूक हो, कहीं बधिर, तो कुछ अंध भी
मेरी कथा का सार पाकर तुम क्या करोगे?

Wednesday, February 4, 2009

ज़बह

ज़बह

हर रोज़
मेरी खाल उतरती है.
मुझे
एक हुक से टांगा जाता है.
थोडी थोडी देर में
मुझे
थोड़ा थोड़ा काटा जाता है.

अपने शरीर से
टपके रक्त को
बूँद बूँद उठा
मैं देह से चिपकाती हूँ.
फिर
खाल उतरवाने को
तैयार हो जाती हूँ.

Tuesday, February 3, 2009

तुम्हारी बात

तुम्हारी बात

तुम जो कहते हो
उसे आवरण बना
अपने सर्वस्व को
उससे लपेट लेती हूँ
वह मेरी ऊर्जा को
सहेजता है
मुझे
अपने स्पर्श से
उष्मित करता है

तुम जो कहते हो
उसे ओढ़कर मैं
ख़ुद को
जीवन-अनल मध्य
प्रहलाद सा सुरक्षित पाती हूँ

तुम जो कहते हो
वह मेरे चेहरे पर
ऐसे खिलता है
ज्यों
प्रातः किरण से आभूषित
दमकता सूर्य

दिन चढ़े या शाम ढले
तुम्हारे कहे हुए को हीं
रत्न सा जड़ लेती हूँ
रात्रि पर्यन्त उसका श्रिंगार किए
मैं सो जाती हूँ
आज के आश्वासन
और
कल की आस के साथ

प्रवाह

प्रवाह

बनकर नदी जब बहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
अपनी आँखों से कहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
हर कथा रचोगे एक सीमा तक
बनाओगे पात्र
नचाओगे मुझे
मेरी कतार को काटकर तुम
एक भीड़ का हिस्सा बनाओगे मुझे
मेरी उड़ान को व्यर्थ बता
हँसोगे मुझपर,
टोकोगे मुझे
एक तस्वीर बता,
दीवार पर चिपकाओगे मुझे,
पर जब...
अपने ही जीवन से कुछ पल चुराकर
मैं चुपके से जी लूँ!
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
तुम्हें सोता देख,
मैं अपने सपने सी लूँ!
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
एक राख को साथ रखूँगी,
अपनी कविता के कान भरूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
जितना सको
प्रयास कर लो इसे रोकने की,
इसके प्रवाह का अन्दाज़ा तो मुझे भी नहीं अभी!