Thursday, December 4, 2008

आस



आस

बड़ी आस थी
उनदिनों,
के मेरे ज्वलंत मस्तक पर
तुम अपने होंठों से ठंडी ओस मलते,
और
मेरी समस्याएं
छनछनाकर भाप बन उड़ जातीं.
तुम्हारी बाहों में
मेरा हर भार होता
और मैं पेंग बढाकर
आसमान तक हो आती.
तुम्हारे वक्ष की गरमाहट
मुझे बर्फ न बनने देता.
मैं पानी होती
मुझमे भी जीवन होता.
बड़ी आस थी उनदिनों,
के तुम होते.
आस
अब भी जीवित है.
क्या तुम
कभी होगे?