Monday, January 18, 2010

तुमसे हीं : हिंदी कविता

तुमसे हीं

अपने जीवन के उन क्षणों में
मैं अदृश्य ही रही,
अनावश्यक,
अकारथ ,
बेजा विषयों की दासी बनकर.
व्यर्थ रहकर
काटती रही हर लम्हा
अपनी एकटक निगाहों से,
तुम्हारी
ही चाह में .

तुम्हारा
गुजरना ही हुआ,
मेरी पथराई छाती पर
हल सा.
मुझे भेद
मेरी चेतना को जगाता.
तुम्हारा याद करना ही हुआ
किसी चिथड़ी किताब की मढ़ाई,
कोमल उँगलियों से पन्ने पलटना,
हर पंक्ति के कराहों की सुनवाई.

मेरी आकृति,
मेरी मुस्कान
तुम्हारी ही चाक पर गढ़ी है.
पोखर किनारे की
ये गीली माटी
आज
पुतुल सजकर
तुम्हारे हाथ जड़ी है.

-अजन्ता