Thursday, February 28, 2008

कुछ यूं हीं...

सोज़ - ओ - साज़ बिन कैसे तराने सुनते
आमों के मंजर, कोयल के गाने सुनते

न टूटता दम, न दिल, न यकीं, न अज़ां
चटकती कली की खिलखिलाहट ग़र वीराने सुनते

हारकर छोड़ हीं दी तेरे आने की उम्मीद
आखिर कब तलक तुम्हारे बहाने सुनते

क़ैस की ज़िन्दगी थी लैला की धड़कन
पत्थर की बुतों में अब क्या दीवाने सुनते

मेरी फ़ुगां तो मेरे अश्कों मे निहां थी
अनकही फ़र्याद को कैसे ज़माने सुनते

बयान-ए-हकीक़त भी कब हसीं होता है
और आप भी कब तक मेरे अफ़साने सुनते