प्रवाह
बनकर नदी जब बहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
अपनी आँखों से कहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
हर कथा रचोगे एक सीमा तक
बनाओगे पात्र
नचाओगे मुझे
मेरी कतार को काटकर तुम
एक भीड़ का हिस्सा बनाओगे मुझे
मेरी उड़ान को व्यर्थ बता
हँसोगे मुझपर,
टोकोगे मुझे
एक तस्वीर बता,
दीवार पर चिपकाओगे मुझे,
पर जब...
अपने ही जीवन से कुछ पल चुराकर
मैं चुपके से जी लूँ!
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
तुम्हें सोता देख,
मैं अपने सपने सी लूँ!
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
एक राख को साथ रखूँगी,
अपनी कविता के कान भरूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
जितना सको
प्रयास कर लो इसे रोकने की,
इसके प्रवाह का अन्दाज़ा तो मुझे भी नहीं अभी!
सुंदर कविता है "इसके प्रवाह का अन्दाज़ा तो मुझे भी नहीं अभी! " अच्छा लगा.
ReplyDeletebahut sundar abhivaykti hai
ReplyDeleteगुलाबी कोंपलें
हमेशा की तरह ही एक ऐसी रचना जिसके अन्तिम शब्द पर पहुँचने पर इसके समाप्त हो जाने का दुःख होता है और मन पुनः पहले शब्द पर पहुँच जाता है.
ReplyDeleteati sundar...
ReplyDeletenirantar pravah bana rahe..
preprnaspad bhawnaon ki abhivyakti unmukta lekhni se..antarman ki gahrai se sada hoti rahe..yahi shubh kaamna...
surabhi
apne aap se samwad.?
ReplyDeletenadi ko koi rok nahi sakta..
Nadi ke pravah ki disha..
ReplyDeleteNirasha se asha ki or..
tamso ma jyotir gamaya..
This is the one which i read first among all your poems, and it's quite nice; In my office i have shared this with many people. It's Simply superb.
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