अस्तित्व
मुझसे वो पूछता है
कि अब तुम कहाँ हो?
घर के उस कोने से
तुम्हारा निशां धुल गया
है वो आसमां वीरां,
जहाँ भटका करती थी तुम,
कहाँ गया वो हुनर
खुद को उढ़ेलने का?
अपनी ज़िन्दगी का खाँचा बना
शतरंज की गोटियाँ चराती फिरती हो...
कहाँ राख भरोगी?
कहाँ भरोगी एक मुखौटा?
खा गयी एक शीत-लहर
तुम्हारे उबाल को..
अब
तुम्हें भी
इशारों पर मुस्काने की आदत पड़ गयी है।
तुम भी
इस नाली का कीड़ा ही रही
भाती है जिसपर..
वही अदना सी ज़िन्दगी..
वही अदना सी मौत..
बहुत भावपूर्ण उम्दा रचना.
ReplyDeleteशतरंज की गोटियाँ चराती फिरती हो...कहाँ भरोगी एक मुखौटा? ये बिम्ब पसंद आए
ReplyDelete"paraphernalia of modern age"
ReplyDeleteसुंदर भाव है इस कविता के
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