Sunday, February 22, 2009

अस्तित्व

अस्तित्व

मुझसे वो पूछता है
कि अब तुम कहाँ हो?
घर के उस कोने से
तुम्हारा निशां धुल गया
है वो आसमां वीरां,
जहाँ भटका करती थी तुम,
कहाँ गया वो हुनर
खुद को उढ़ेलने का?
अपनी ज़िन्दगी का खाँचा बना
शतरंज की गोटियाँ चराती फिरती हो...
कहाँ राख भरोगी?
कहाँ भरोगी एक मुखौटा?
खा गयी एक शीत-लहर
तुम्हारे उबाल को..
अब
तुम्हें भी
इशारों पर मुस्काने की आदत पड़ गयी है।
तुम भी
इस नाली का कीड़ा ही रही
भाती है जिसपर..
वही अदना सी ज़िन्दगी..
वही अदना सी मौत..

4 comments:

  1. बहुत भावपूर्ण उम्दा रचना.

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  2. शतरंज की गोटियाँ चराती फिरती हो...कहाँ भरोगी एक मुखौटा? ये बिम्ब पसंद आए

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  3. सुंदर भाव है इस कविता के

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