Wednesday, January 23, 2008

ढूँढती हूँ...

उनको बिसारकर ढूँढती हूँ।
पहर-दर-पहर ढूँढती हूँ।

खाकर ज़हर ज़िन्दगी का,
शाम को, सहर ढूँढती हूँ।

अपने लफ्जों का गला घोंट,
उनमें असर ढूँढती हूँ।

अन्तिम पड़ाव पर आज,
अगला सफ़र ढूँढती हूँ।

बर्दाश्त की हद देखने को,
एक और कहर ढूँढती हूँ।

दीवारें न हों घरों के सिवा,
ऐसा एक शहर ढूँढती हूँ।

रंग बागों का जीवन में भरे,
फूलों का वो मंजर ढूँढती हूँ।

इश्क की रूह ज़िन्दा हो जहाँ,
ऐसी इक नज़र ढूँढती हूँ।

दिल को खुश करना चाहूँ,
वादों का नगर ढूँढती हूँ।

रौशनी आते आते टकरा गई,
सीधी - सी डगर ढूँढती हूँ।

छोड़ जाय मेरे आस का मोती,
किनारे खड़ी वो लहर ढूँढती हूँ।

जो मुझे डसता है छूटते ही,
उसी के लिये ज़हर ढूँढती हूँ।

जानती हूँ कोई साथ नहीं देता।
क्या हुआ ! अगर ढूँढती हूँ।

कौन कहता है कि मै ज़िन्दा हूँ?
ज़िन्दगी ठहर ! ढूँढती हूँ!

पत्थर में भगवान बसते हैं,
मिलते नहीं, मगर ढूँढती हूँ।

6 comments:

  1. This is a wonderful poem ajanta. JAYA

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  2. This is a wonderful poem ajanta. JAYA

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  4. शब्दों की कमी पड़ गयी तारीफ के लिए ...

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  5. this is my hindi poem. kaisee hai?
    क्‍यों

    इस बंजर जमीन पर
    उगाने की कोशीश
    क्‍यों करते है यह लोग ?
    इस जमीन को बंजर तो इन्होनेही बनाया था
    फिर भी जमीन को क्‍यों कोसते है यह लोग
    खाने की दावत तो देते है यह लोग
    खातेभी है खूब जमकर पर...
    खाने में लगते है कंकर
    कंकर तो बनाते है यह लोग?
    तो .. कंकर को क्‍यों कोसते है यह लोग
    धूप में चलना तो पडताही है सबको
    धूप तपती है, जलाती है
    छांव की चाह करते है सब
    पेड तो काटते है यही
    फिर छांव को क्‍यों कोसते है यह लोग ?

    प्रकाश रामचंद्र क्षीरसागर
    ताळगाव गोवा,

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  6. this is my himdee poem. kaisee hai? bateaga jaroor.

    क्‍यों

    इस बंजर जमीन पर
    उगाने की कोशीश
    क्‍यों करते है यह लोग ?
    इस जमीन को बंजर तो इन्होनेही बनाया था
    फिर भी जमीन को क्‍यों कोसते है यह लोग
    खाने की दावत तो देते है यह लोग
    खातेभी है खूब जमकर पर...
    खाने में लगते है कंकर
    कंकर तो बनाते है यह लोग?
    तो .. कंकर को क्‍यों कोसते है यह लोग
    धूप में चलना तो पडताही है सबको
    धूप तपती है, जलाती है
    छांव की चाह करते है सब
    पेड तो काटते है यही
    फिर छांव को क्‍यों कोसते है यह लोग ?

    प्रकाश रामचंद्र क्षीरसागर
    ताळगाव गोवा,

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