तुम्हें
जिस दिन अपनी गलियों से गुज़रते देखा था,
मेरा दहकता धर्म
गंगोत्री के चरण धर
सुरसरी संग बहने की इच्छा करने लगा था.
मैं सूर्य हूँ.
अपने आकाश में आंखें तरेरे
आग उड़ेले
अडिग बन
छड़ी की नोक पर
सर्वत्र धमकती फिरती हूँ.
किंतु,
हे धवल बादल !
उस दिन
जब तुम्हें बहता देखा था मैंने,
चाहा था
तुम्हारे फाहों में एकबार मुंह छुपा
खुद को संतापहीन कर लूं,
अपनी अकड़ का सारा ताप झर दूं.
मैं बन जाऊं एक बालक,
और बना लूं तुम्हें
अपने घर के अहाते का एक अनदेखा कोना
जिसमें छुप
मैं दुनिया भर के विषादों से लिपटे कागज़ का
एक पेपर प्लेन बनाऊं.
एक नाव
जिसमे अपनी मासूमियत तैराऊँ.
तुम्हीं बताओ !
अपने अस्तित्व का यह कोमल पक्ष
मैं और कित लेकर जाऊं?
हाँ ! मैं हूँ सूर्य !
करती नेतृत्व
रहती अविजित
अपार ऊर्जा निहित.
पर,
मेरे एकमात्र शीतल बादल !
क्या तुम नहीं थामोगे मेरी विनम्रता भी ?
मेरे चेहरे की मलीनता,
क्षण भर की क्षीणता भी ?
क्या नहीं है तुम्हें
मेरी एक दुबकी हुई कुंठा स्वीकार्य?
क्या न होगा तुम्हें
मेरे पल भर का भी ग्रहण
ग्राह्य?
-अजन्ता
Truly awesome!!!
ReplyDeleteNeed to have a very deep thought process to jaw down these words!!!!!
ReplyDeleteभावों की गहन अभिव्यक्ति सुंदर अतिसुन्दर बधाई की परिधि से बाहर
ReplyDeletekhoobsoorat ...man vaakaee kitni baaten kar leta hai ...
ReplyDeleteafter first reading, such poems needs to be read again and again.. every time it is more meaningful!
ReplyDeletekeep writing :-)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete...main ban jaau ek baalak... amazing imagination! The visual it creates, is so comforting and soothing. I always like your poetry in parts - those that I am able to understand :-). Then I wonder - if parts of your poem are so beautiful, the whole would definitely be spellbinding. I also wonder about the identity of that baadal... ;-)
ReplyDeleteYour ability to 'realise' the gist of your words in paint and pencil, is indeed commendable - lends a totally new dimension to the kavita. Congratulations!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमैं सूर्य हूँ.
ReplyDeleteअपने आकाश में आंखें तरेरे
आग उड़ेले
अडिग बन
छड़ी की नोक पर
सर्वत्र धमकती फिरती हूँ.
...सुन्दर बिम्ब देखने को मिले ..
सुन्दर सार्थक प्रस्तुति मन को बहुत अच्छी लगी
हार्दिक शुभकामनायें!.
sorry ........I am coming late here......
ReplyDeleteपर,
मेरे एकमात्र शीतल बादल !
क्या तुम नहीं थामोगे मेरी विनम्रता भी ?
मेरे चेहरे की मलीनता,
क्षण भर की क्षीणता भी ?
क्या नहीं है तुम्हें
मेरी एक दुबकी हुई कुंठा स्वीकार्य?
क्या न होगा तुम्हें
मेरे पल भर का भी ग्रहण
ग्राह्य?..........bahut hi achchi line....aur ek kuch sandesh dete hue....thanks.......
sundar, kintu ...
ReplyDeleteजब तुम्हें बहता देखा था मैंने,
ReplyDeleteचाहा था
तुम्हारे फाहों में एकबार मुंह छुपा
खुद को संतापहीन कर लूं,
अपनी अकड़ का सारा ताप झर दूं.
...
एक नाव
जिसमे अपनी मासूमियत तैराऊँ.
तुम्हीं बताओ !
अपने अस्तित्व का यह कोमल पक्ष
मैं और कित लेकर जाऊं?
- प्रखरता और कोमलता का संघात ऐसे ही प्रश्नों में सामने आ खड़ा होता है.
There is so much depth in your writings I wish you all the good luck. Keep the good work going.
ReplyDeleteAjanta aapki kavitaon mai aap aapki kalpana un kavitaon ko is gahraaie tak le jati hai ki man karta hai ki in mai hamesha ke liye doobe rahai.
ReplyDeleteKalpana kie in udano ko aur oochaiyo par le jao ye hamarie dua hai.
respected "kintu" ma'm ....
ReplyDeleteअशेष समर्पण , “दलित-द्राक्षा की भांति खुद को निचोड़ कर” दे देने की एक व्यग्र कामना , जो पूरी न हो कर अन्ततः एक टीस सी बन जाती है ,बार बार आपकी कविताओं में अलग अलग गहन , मूर्ति जैसे गढ़े गये बिम्बों में अभिव्यक्त होती है , ऐसा मैं समझ पाता हूं.
बहुत सुंदर कविता, प्रसंशनीय,अतुलनीय
ReplyDeleteबधाई
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबधाई
आज भी आपकी रचनाओं के हर शब्द झकझोरते हैं । आपकी पीड़ा से मुक्त होने की प्रतीक्षा और शब्दों की हरीमिता से फिर से रचनाओ के लहलहाने की प्रतीक्षा में पलकें बिछाये ईश्वर से आज भी रोज प्रार्थना करता हूं । जाने कब मुलाकात होगी आपके शब्दों और रचनाओं से ....
ReplyDeletemeri.rachnaye@gmail.com