Saturday, March 7, 2009

आईना

आईना

काश !
कि तुम आईना ही बन जाते ,
मैं
ठिठकी खड़ी रहती ,
और
तुम मेरा चेहरा पढ़ पाते ,
मेरे एक एक भाव से
होती रहती मैं ज़ाहिर ,
तुम
अपलक निहारते मुझे
और
बांछ्ते मेरे माथे की लकीर ,
मेरे हाथ बढ़ाए बिना
तुम
मुझे एकाकार कर लेते ,
हर प्रश्न का उत्तर
तुम्हारी आखों मे
मेरा चेहरा होता ,
मेरे शब्द
बिन वाणी के नही मरते .


6 comments:

  1. अजन्ता जी आपकी आज पोस्टेड रचना आईना अभी ब्लाग खोलते ही पढने को मुझे मिल गया, सदा की भान्ति अति सुन्दर शब्द सयोजन, भावो का अद्भुत सम्प्रेषण,


    काश !
    के तुम आईना ही बन जाते ,
    मैं
    ठिठकी खड़ी रहती ,
    और
    तुम मेरा चेहरा पढ़ पाते ,
    मेरे एक एक भाव से
    होती रहती मैं ज़ाहिर ,
    तुम
    अपलक निहारते मुझे
    और

    मेरे छोटे से शब्दकोष मे आपकी रचनाओ की प्रशन्सा के लिये बहुत बडे भावार्थ वाले शब्द काश! होते तो मै भी जरूर कुछ और कह पाता, आप किसी आईने मे प्रतिबिम्बित मेरे भावो को ही मेरे शब्द समझ लीजीयेगा.

    बहुत सुन्दर स्केच है, आपकी अलौकिक प्रतिभा मा सरस्वती की क्रिपा है, इसे निरन्तर सहेजते और सवारते रहिये.


    सादर
    राकेश

    ReplyDelete
  2. sundar bhav sundar chitra badhai

    ReplyDelete
  3. बहुत अच्छी कविता और तस्वीर !

    ReplyDelete