Tuesday, March 3, 2009

एकाकार

एकाकार

एक आकार बन
मेरे मानस में तुम्हारा स्थापन
मुझे ठहरा गया है.
न अब कोई प्रतीक्षा है.
न भय है तुम्हारे जाने का.
मेरी दीवारें भी
अब तुम्हें खूब पहचानती हैं
महका करती हैं वो
तुम्हारी खुश्बू की भांति
और मुझे नहलाती है.
मेरी बन्द पलकों पर
वायु का सा एक थक्का
जब
तुम - सा स्पर्श करने को
मांगता है मेरी अनुमति,
मैं सहज हीं सर हिला देती हूँ
मेरे सार में
विलीन हो जाता है,
तुम्हारे अहसास और आवश्यकता का अनुपात.
अब तुम सदा मेरे पास हो,
उदभव से लेकर,
समाहित होने तक.


13 comments:

  1. क्या बात है । प्यार झलकता है इस कविता में । अच्छी अनुभूति ।

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  2. अद्भुद भाव और अतिसुन्दर अभिव्यक्ति.......
    बहुत ही सुन्दर रचना...वाह !!!

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  3. "तुम्हारे अहसास और आवश्यकता का अनुपात.
    अब तुम सदा मेरे पास हो,"--
    कवी जन्म सार्थक हैं |
    बहुत ख़ुशी बात हैं अजन्ताजी कि आजकल लिखती ही रहती |

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  4. जब दो मिल कर हो जाते हैं एक, दो भेद मिट जाता है, यही संपूर्ण प्रेम व्यापक कहलाता है।

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  5. आह! कविता वाह! कविता।

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  6. बहुत सुंदर !
    घुघूती बासूती

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  7. बेहतरीन!! चित्र किसने बनाया है?

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  8. सचमुच एकाकार ! भव्य !

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  9. कविता और sketch दोनों ही अति सुन्दर हैं. आपके लेखन का कोई जवाब नहीं.
    आपकी इन पंक्तियों पर मेरा अब तक का लिखा सारा न्योछावर.

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  10. अतिसुन्दर अभिव्यक्ति.......
    बहुत ही सुन्दर रचना...

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  11. बहुत-बहुत सुन्दर रचना,

    एक आकार बन
    मेरे मानस में तुम्हारा स्थापन
    मुझे ठहरा गया है.
    न अब कोई प्रतीक्षा है.
    न भय है तुम्हारे जाने का

    उपरोक्त पन्क्तियो ने मुग्ध कर दिया, गूढ भावार्थ को समेटे उपरोक्त पन्क्तिया, शायद यह आपकी पहचान भी है, स्केच के बारे मे तो मै जानता ही हू फिर क्या पूछना, इतनी सुन्दर तस्वीर आप ही बना सकती है, वैसे भी आप विविध प्रतिभाओ की धनी है. कल ८ मार्च महिला दिवस भी है, और मै कह सकता हू कि आप और शर्दुला जी जैसी स्त्रियो पर यह समाज और देश निश्चय ही गर्व करता होगा.

    सादर
    राकेश

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