Thursday, February 26, 2009

जमाव

जमाव

तमतमाये सूरज ने मेरे गालों से लिपटी बूंदें सुखा डालीं.
ज़िन्दगी !
तूने जो भी दिया...उसका ग़म अब क्यों हों?
मैं जो हूँ
कुछ दीवारों और काँच के टुकड़ों के बीच.
जहाँ चन्द उजाले हैं.
कुछ अंधेरे घंटे भी.
कुछ खास भी नहीं
जिसमें सिमटी पड़ी रहूँ.
खाली सड़क पर
न है किसी राहगीर का अंदेशा.
तारों से भी डरती हूँ
कि जाने
मेरे आँचल को क्या प्राप्त हो?
फिर भी
हवा तो है!
मेरी खिड़की के बाहर
उड़ती हुई नन्हीं चिड़ियों की कतार भी है।
मेरे लिये
ठहरी ज़मीं है
ढाँपता आसमां है.
ऐ ज़िन्दगी!
तेरे हर लिबास को जब ओढ़ना हीं है
तो उनके रंगों में फ़र्क करने से क्या हासिल ?

6 comments:

  1. ज़िन्दगी !
    तूने जो भी दिया...उसका ग़म अब क्यों हों?


    ऐ ज़िन्दगी!
    तेरे हर लिबास को जब ओढ़ना हीं है
    तो उनके रंगों में फ़र्क करने से क्या हासिल ?

    इन दोनों पंक्तियों में कुछ विरोधाभास सा दिखता है ..ज़िन्दगी का हर रंग सुन्दर है ..

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  2. ऐ ज़िन्दगी!
    तेरे हर लिबास को जब ओढ़ना हीं है
    तो उनके रंगों में फ़र्क करने से क्या हासिल ?
    niraashawad hai lekin thorha-sa yatharth bhi hai.

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  3. ऐ ज़िन्दगी!
    तेरे हर लिबास को जब ओढ़ना हीं है
    तो उनके रंगों में फ़र्क करने से क्या हासिल ?
    कितने सुंदर भाव है !!
    क्‍या खूबी से उन्‍हें शब्‍दों में पिरोया है।

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  4. "जहाँ चन्द उजाले हैं.
    कुछ अंधेरे घंटे भी.
    कुछ खास भी नहीं
    जिसमें सिमटी पड़ी रहूँ."

    यही हैं ज़िन्दगी!

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  5. This comment has been removed by the author.

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