Wednesday, February 25, 2009

...और बातें हो जायेंगी

...और बातें हो जायेंगी

आओ...
हम साथ बैठें।
पास बैठें।
कभी खोलूँ
कभी पहनूँ मैं अपनी अँगूठी।
तुम्हारे चेहरे को टिकाए
तुम्हारी ही कसी हुई मुट्ठी।
चमका करे धुली हुई मेज़
हमारे नेत्रों के अपलक परावर्तन से।
और तब तक
अंत: मंडल डबडबाए
प्रश्न उत्तरों के प्रत्यारोपण से।
विद्युत बन बहे
हमारे साँसों के धन-ऋण का संगम
हाँ प्रिय!
नहीं चढ़ायेंगे हम
भावनाओं पर शब्द रूप आवरण।

5 comments:

  1. आओ...
    हम साथ बैठें।
    पास बैठें।
    कभी खोलूँ
    कभी पहनूँ मैं अपनी अँगूठी।
    तुम्हारे चेहरे को टिकाए
    तुम्हारी ही कसी हुई मुट्ठी।
    चमका करे धुली हुई मेज़
    bahut pyaari baate hai ye

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  2. शब्द स्वयं लाचार हो गये अभिव्यक्ति को।
    नही सका पहचान, भावना की शक्ति को।।
    भावनाओं की अपनी भाषा होती है।
    छिपी हुई इनमें परिभाषा होती है।।

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  3. बहुत सुंदर कविता हैं अजन्ताजी !

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  4. हाँ प्रिय!
    नहीं चढ़ायेंगे हम
    भावनाओं पर शब्द रूप आवरण।
    अद्भुत !!! अतिसुन्दर !!!

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  5. Bahot sundar rachna, bhaav-vibhor ho gaya. In shabdo ke jadoo se shaayad hi koi achoota rah paaye.

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