इस बार
अनगिनत आँगन
अनगिनत छत,
अनगिनत दिये
और उनके उजालों का कोलाहल..
इनके बीच
कहीं गुम सी मैं,
कहीं भागने की हठ करता हुआ
लौ सा मचलता मेरा मन...
वो एकाकी
जो तुम्हारे गले लग कर
मुझसे लिपटने आया है
उसकी तपिश में
हिम सी पिघलती मेरी नज़रें...
मुझसे निकलकर
मुझको ही डुबोती हुई...
इस शोर और रौशनी का हाथ पकड़कर,
छलक उठे हैं चाँद पर
मेरी भावनाओं के अक्स,
और उन्हें सहलाते हुए
चन्द प्रतिलक्षित तारे,
फिर कहीं
आच्छादित धुआँ,
असहनीय आवाज़ें,
आभासित अलसाई सुबह,
और उन जमी हुई मोमबत्ती की बूँदों के नीचे
दबी मैं व मेरा सहमा मन.
एक रात अवांछित सी आई है इस बार
अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए है।बधाई।
ReplyDeletevery good poem. read my hindi poem on chithatajagat.
ReplyDeletehere is one. give your comment
क्यों
इस बंजर जमीन पर
उगाने की कोशीश
क्यों करते है यह लोग ?
इस जमीन को बंजर तो इन्होनेही बनाया था
फिर भी जमीन को क्यों कोसते है यह लोग
खाने की दावत तो देते है यह लोग
खातेभी है खूब जमकर पर...
खाने में लगते है कंकर
कंकर तो बनाते है यह लोग?
तो .. कंकर को क्यों कोसते है यह लोग
धूप में चलना तो पडताही है सबको
धूप तपती है, जलाती है
छांव की चाह करते है सब
पेड तो काटते है यही
फिर छांव को क्यों कोसते है यह लोग ?
प्रकाश रामचंद्र क्षीरसागर
ताळगाव गोवा,
और उन जमी हुई मोमबत्ती की बूँदों के नीचे
ReplyDeleteदबी मैं व मेरा सहमा मन.
एक रात अवांछित सी आई है इस बार
--बहुत गहरे भाव!!
और उन जमी हुई मोमबत्ती की बूँदों के नीचे...
ReplyDeletebahut badhiya..
Zindagi mein kayi aisi ratein sab ki zindagi mein ati hai jab vaykati khud ko avaanchit samajhta hai parantu un sabahoon ko nahi ginta jo uske liye sukhmaye sandesh le kar ati hai. yeh shayad insaan ki praveriti hai.
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