Wednesday, February 4, 2009

ज़बह

ज़बह

हर रोज़
मेरी खाल उतरती है.
मुझे
एक हुक से टांगा जाता है.
थोडी थोडी देर में
मुझे
थोड़ा थोड़ा काटा जाता है.

अपने शरीर से
टपके रक्त को
बूँद बूँद उठा
मैं देह से चिपकाती हूँ.
फिर
खाल उतरवाने को
तैयार हो जाती हूँ.

15 comments:

  1. उफ़ क्या कहूँ.......चाँद लफ्जों में आपने दर्द की पूरी दास्ताँ बयां कर दी....
    लाजवाब.....

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  2. गुल्ज़ारिश कविता, अच्छा है!

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  3. क्या कहूं ????
    बस इतना कि अभिव्यक्ति की कलात्मकता इतनी उन्नत है कि ज़बह किए जाने का दर्द मन से लिपट गया और वह टपकता रक्त कहीं मेरी आंखों में तैर गया.
    अगर सिर्फ कविता की बात करें तो इसके प्रत्युत्तर में सारा सगुफ्ता की कवितायें आंखों के सामने आ खड़ी होती हैं.

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  4. Uff, dard ki itni acchi abhivyakti. Bahot accha likha hain aapne.

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  5. यदि कवियित्री अजन्ता जी द्वारा लिखी यह कविता समाज के एक बहुत छोटे से हिस्से को भी प्रतिनिधित्व करती हो तो आने वाला समय इस पशुता के लिये पुरूष समाज को शायद कभी माफ नही करेगा.घरेलू हिन्सा के नाम पर यह अत्याचार अक्षम्य है.

    स्त्रिया पूजा और आदर के योग्य होती है भले ही वह पत्नी के रूप मे ही क्यो ना, जो समाज ऐसा ना कर सका उसे उसकी कीमत एक दिन अवश्य चुकानी होगी.

    ये कैसा समाज है जो एक तरफ अपनी आधुनिकता का ढिन्ढोरा पीटते हुये अपने प्रगति का दम्भ भरता है तो दूसरी ओर स्त्रियो पर ऐसा जघन्य अपराध ! लानत है ऐसी सामाजिक व्यवस्था को.

    मुझे ऐसी कविता को पढते हुये बहुत पीडा होती है लेकिन मैने अजन्ता जी का सम्मान रखने के लिये इस पर टिप्पणी की है, मै उनके आदेश की अवहेलना अन्तत: ना कर सका.

    ईश्वर से प्रार्थना करता हू कि समाज मे इस तरह की घटना कभी सुनने या पढने को ना मिले ताकि फिर कभी किसी कवियित्री के कोमल भाव आहत हो, और इस तरह की कोई कविता मुझे कभी किसी कवियित्री के ब्लाग पर मिले .

    सादर और
    अत्यन्त सम्मान के साथ
    राकेश

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  6. प्रिय अजन्ता

    आपकी कविता ने यहां लन्दन में बैठ कर नारी के दर्द की अनुभूति करवाई है। दरअसल कविता की महानता यह है कि यह केवल शारीरिक उत्पीड़न की बात नहीं करती। खाल उतरना और लहू का टपकना केवल देह तक सीमित नहीं है। यह पीड़ा मन और आत्मा तक गहरी है। पति पत्नी के सम्बन्धों की गहराई से संवेदनात्मक प्रस्तुति है आपकी कविता। बधाई

    तेजेन्द्र शर्मा
    महासचिव - कथा यू.के.
    लन्दन

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  7. Ajanta ji,
    kafee dard chhipa hai is kavita men.par apne achchhe shabdon men is dard ko piroya hai.badhai.
    Poonam

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  8. वाहवा.... अजन्ता जी, कमाल की भावाभिव्यक्ति.....

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  9. Ajanta you have different new ways to express yourself.......i m always short of words to say something over your poems.

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  10. . . . . फिर से देह पर चिपकाना और फिर खाल उतरवाने के लिए तैयार हो जाना . . . . शायद यही है अतिमानावता का वह उदघोष जो हर पाशविक विश्ण्णता को संत्रस्त कर देगा ........! ......."तुमने सूली पे लटकते जिसे देखा होगा , वक्त आयेगा की वही शक्स मसीहा होगा . . . . . "

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  11. ....... ्ये अंदाज अलग है..

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  12. meri anubhuti iss kavita ke liye kuch alag hai. Yeh kavita istri samaaj ki woh tasveer hai jisse apne ek alag dhang se tai kiya hai. apne jis pashvikta ka chitraan kiya hai woh kisi hadd tak sahi hai.

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  13. जबह...
    पहले तो मैं 'जबह' का अर्थ ही नहीं जानता था फिर इंटरनेट से इसका अर्थ निकाला और उस अर्थ को जानकर मैं इतना भयभीत हो गया सोचा कि जब कविता का टाइटल इतना डरावना है तो कविता कैसा होगा ???
    (आज से जब भी मैं किसी जानवर को हलाल होते हुए देखूगा तो आपकी यह कविता याद आ जाएगी )
    अब कविता की बात करते हैं. इस छोटी सी रचना को पहले तो जैसा लिखा है वैसा ही पड़ता चला गया. जब इसकी मैपिंग की जाती है तब दिल सिहर उठता है. आप ने इसे दो भागों में चित्रित किया है पहला भाग, एक औरत की दर्द और दूसरा भाग उसकी विवशता को दिखता है. बहुत जबदस्त लिखा है...
    लिखने का यही अंदाज आप को भीड़ से अलग करता है ...

    आर. पी. यादव
    लखनऊ

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