तुम्हारी बात
तुम जो कहते हो
उसे आवरण बना
अपने सर्वस्व को
उससे लपेट लेती हूँ
वह मेरी ऊर्जा को
सहेजता है
मुझे
अपने स्पर्श से
उष्मित करता है
तुम जो कहते हो
उसे ओढ़कर मैं
ख़ुद को
जीवन-अनल मध्य
प्रहलाद सा सुरक्षित पाती हूँ
तुम जो कहते हो
वह मेरे चेहरे पर
ऐसे खिलता है
ज्यों
प्रातः किरण से आभूषित
दमकता सूर्य
दिन चढ़े या शाम ढले
तुम्हारे कहे हुए को हीं
रत्न सा जड़ लेती हूँ
रात्रि पर्यन्त उसका श्रिंगार किए
मैं सो जाती हूँ
आज के आश्वासन
और
कल की आस के साथ
जब आपको पढता हूँ तो तय नही कर पाता कि शब्द मुझमे उतर रहे हैं या मैं शब्दों में. भाव मन को छूते नही वरन उसमे समाते चले जाते हैं. शब्दों में पिरोई गयी संवेदनाओं की उचाईयां और गहराइयाँ मेरी कल्पनाओं से भी अधिक होती हैं . हर शब्द को हजार बार पढने का मन करता है.
ReplyDeleteदिन चढ़े या शाम ढले
ReplyDeleteतुम्हारे कहे हुए को हीं
रत्न सा जड़ लेती हूँ
रात्रि पर्यन्त उसका श्रिंगार किए
मैं सो जाती हूँ
आज के आश्वासन
और
कल की आस के साथ
बहुत खूब बहुत अच्छा लिखा है आपने
आप लिखती है तो क्या जादू होता है आपके शब्दो मे,
ReplyDeleteआपकी हर कविता आपके अनुपम व्यक्तित्व की एक झलक होती है
आपके लिये चन्द पन्क्तिया मेरी अनन्त शुभकामनाओ के साथ -
मै उस अन्नत आकाश की उन्चाईयो को,
जब-जब देखता हू तुम्हारे व्यक्तित्व से नापकर,
तब-तब बहुत बौना पाता हू उस गगन को !
ये हाथ मेरे, नापते हुये थक जाते है,
और मेरे सारे बनाये पैमाने बहुत छोटे पड जाते है!
सादर
राकेश
वाह ! मुग्ध कर लिया आपकी पंक्तियों ने.......
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर रचना......वाह !
तुम जो कहते हो
ReplyDeleteउसे आवरण बना
अपने सर्वस्व को
उससे लपेट लेती हूँ
वह मेरी ऊर्जा को
सहेजता है
मुझे
अपने स्पर्श से
उष्मित करता है
बेहद खूबसूरत पन्क्तिया
आप लिखती है तो क्या जादू होता है आपके शब्दो मे,
आपकी हर कविता आपके अनुपम व्यक्तित्व की एक झलक होती है
आपके लिये चन्द पन्क्तिया मेरी अनन्त शुभकामनाओ के साथ -
मै उस अनन्त आकाश की उन्चाईयो को,
जब जब देखता हू तुम्हारे व्यक्तित्व से नापकर !
तब तब बहुत बौना पाता हू उस गगन को,
लेकिन जब तुम्हारे विशाल कद को नापने का,
कभी मै भी उत्सुकुता से हठ कर बैठता हू,
तो, ये मेरे हाथ, नापते हुये थक जाते है,
और मेरे सारे बनाये पैमाने बहुत छोटे पड जाते है.
सादर
राकेश
Bahot sunder rachna hain, dil mein utar gayi. Aapne itna khobb likha hain ki baar baar padhne ka jee karta hain. Khhelikhoob.
ReplyDeleteकहना ही कैसे बनता है गहना
ReplyDeleteदेख लो भाईयों और जी बहना
कहन ही से तो मनन है बहता
मनन ही मन से है सब कहता
बस यूँ ही आस्था बनी रहे
ReplyDeleteऔर विश्वास न टूटने पाये ...
सुन्दर कविता है .....
pyaari ajanta,
ReplyDeletebahut sunder hai!! aise hi likhti raha karo.
The more I read these lines, the more they seem to sink in and then I want to read even more!
ReplyDeleteYou sure have a way with words and its always a treat to read your new poems!!
Keep writing...
प्रिय अजन्ता
ReplyDeleteआपकी कविता तुम्हारी बात नारी-पुरुष सम्बन्धों के खोखलेपन का महीन चित्रण है। पुरुष द्वारा नारी को छले जाने वाले सदियों पुरानी परम्परा को बहुत ही कलात्मक ढंग से कविता में पिरोया है आपने।
मैं सो जाती हूँ
आज के आश्वासन
और
कल की आस के साथ ..
नारी को दिया गया आश्वासन और उसकी कभी न टूटने वाली आस - बहुत ही संवेदनशील ढंग से प्रेषित हुए हैं।
तेजेन्द्र शर्मा
महासचिव - कथा यू.के.
लन्दन
बहुत खुशी हूं मैं, ऐसी सुंदर रचना पढ़कर!
ReplyDeleteI feel writing anything in response to such beautiful thoughts will only highlight the fact that no one can use the word to express feelings the way you do.
ReplyDeleteIts not only a fine piece of poetry but also reflections of the capacity of a sensitive heart and observation of a sharp eye.
Thank for writing for us.
Bhole