Monday, March 30, 2009
उत्तर
उत्तर
मरिचिका से भ्रमित हो
वह प्रश्न कर बैठे हैं
थोडा पास आकर देखें
जीवन बिल्कुल सपाट है
अपने निष्टुर आंखों से
जो आग उगलते रहते हैं
उनपर बर्फ सा गिरता
मेरा निश्छल अट्टहास है
जीवन ने फल जो दिया
वह अन्तकाल मे नीम हुआ
उसे निगल मुस्काती अपने
रिश्ते की मिठास है
Saturday, March 7, 2009
पूर्ण
(८ मार्च - महिला दिवस के अवसर पर )
पूर्ण
तुम मुझसे डरो !
क्योंकि मैं खुद को रोकना नहीं जानती.
तुम मुझसे डरो !
क्योंकि मैं समस्याओं के टीले पर खडी होकर भी
उन्मादित हो हंसती हूँ.
तुम डरो !
क्योंकि तुम्हारे लाख मारने पर भी
मैं ’कुछ’ प्रसंगों को पल-पल जीती हूँ.
तुम चाहते हो मैं रोती रहूँ.
सुबकती जीऊँ.
हारकर तुम्हें अपनी जरूरत बताऊँ
पर
तुम अब डर जाओ.
क्योंकि, मैं तुम्हारे अनुमान से भी आगे हूँ.
मैं क्षितिज तक जाकर इन्द्रधनुष में छिटकी हूँ.
मैं बह रही हूँ.
मैं कह रही हूँ.
मैं हूँ अपने हीं प्रश्नों का उत्तर.
मैँ अपनी सहेली आप हूँ.
मैं मुझ संग प्रेम प्रलाप हूँ.
-अजन्ता
पूर्ण
तुम मुझसे डरो !
क्योंकि मैं खुद को रोकना नहीं जानती.
तुम मुझसे डरो !
क्योंकि मैं समस्याओं के टीले पर खडी होकर भी
उन्मादित हो हंसती हूँ.
तुम डरो !
क्योंकि तुम्हारे लाख मारने पर भी
मैं ’कुछ’ प्रसंगों को पल-पल जीती हूँ.
तुम चाहते हो मैं रोती रहूँ.
सुबकती जीऊँ.
हारकर तुम्हें अपनी जरूरत बताऊँ
पर
तुम अब डर जाओ.
क्योंकि, मैं तुम्हारे अनुमान से भी आगे हूँ.
मैं क्षितिज तक जाकर इन्द्रधनुष में छिटकी हूँ.
मैं बह रही हूँ.
मैं कह रही हूँ.
मैं हूँ अपने हीं प्रश्नों का उत्तर.
मैँ अपनी सहेली आप हूँ.
मैं मुझ संग प्रेम प्रलाप हूँ.
-अजन्ता
आईना
Tuesday, March 3, 2009
एकाकार
एकाकार
एक आकार बन
मेरे मानस में तुम्हारा स्थापन
मुझे ठहरा गया है.
न अब कोई प्रतीक्षा है.
न भय है तुम्हारे जाने का.
मेरी दीवारें भी
अब तुम्हें खूब पहचानती हैं
महका करती हैं वो
तुम्हारी खुश्बू की भांति
और मुझे नहलाती है.
मेरी बन्द पलकों पर
वायु का सा एक थक्का
जब
तुम - सा स्पर्श करने को
मांगता है मेरी अनुमति,
मैं सहज हीं सर हिला देती हूँ
मेरे सार में
विलीन हो जाता है,
तुम्हारे अहसास और आवश्यकता का अनुपात.
अब तुम सदा मेरे पास हो,
उदभव से लेकर,
समाहित होने तक.
एक आकार बन
मेरे मानस में तुम्हारा स्थापन
मुझे ठहरा गया है.
न अब कोई प्रतीक्षा है.
न भय है तुम्हारे जाने का.
मेरी दीवारें भी
अब तुम्हें खूब पहचानती हैं
महका करती हैं वो
तुम्हारी खुश्बू की भांति
और मुझे नहलाती है.
मेरी बन्द पलकों पर
वायु का सा एक थक्का
जब
तुम - सा स्पर्श करने को
मांगता है मेरी अनुमति,
मैं सहज हीं सर हिला देती हूँ
मेरे सार में
विलीन हो जाता है,
तुम्हारे अहसास और आवश्यकता का अनुपात.
अब तुम सदा मेरे पास हो,
उदभव से लेकर,
समाहित होने तक.
Sunday, March 1, 2009
सूत सी इच्छाएं...
सूत सी इच्छाएं...
रोते रोते
जी चाहता है,
मोम की तरह गलती जाऊं.
दीवार से चिपककर
उसमें समा जाऊं.
पर क्या करुं!
हाड-मांस की हूं जो!
जलने पर बू आती है.
और
सामने खडा वो
मुझसे दूर भागता है.
मेरी सूत सी इच्छाओं को
कोई
उस आग से
खींचकर
बाहर नहीं निकालता.
रोते रोते
जी चाहता है,
मोम की तरह गलती जाऊं.
दीवार से चिपककर
उसमें समा जाऊं.
पर क्या करुं!
हाड-मांस की हूं जो!
जलने पर बू आती है.
और
सामने खडा वो
मुझसे दूर भागता है.
मेरी सूत सी इच्छाओं को
कोई
उस आग से
खींचकर
बाहर नहीं निकालता.
Subscribe to:
Posts (Atom)