अनुरोध
हे बादल!
अब मेरे आँचल में
तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिये
ढेरों मुस्काते रंग.
मेरा ज़िस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ के तले
दबा है.
उस तमतमाये सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान
इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते...
कि
एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की
आस रहती है इन्हें.
बादल!
तुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई
कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?
Yeh Wakai Kadwi Sachhai Hai
ReplyDeleteKankreet ki is duniya me
Badalon ka hi asra hai
par hum itne besharm ho chuke hain ki
Badal bhi nirash hai
wo ab nahi barsata hai thandak
use bhi tejabi bana diya hamne
Hum chah rahe hain ab wo barsaye thandak aur
dho de hamari besharmi
par wo bhi seekh chuka hai besharm hona
tabhi to bemauke par aakar
Hum par hans kar chala jata hai
Aur sawal chod jata hai ki
Ab kahan jawoge apni sharm dhone
mai bhi besharm hoon
Bahut Achha likha Aapne Dhanyawad -- GDSAKLANI
बादल!
ReplyDeleteतुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई
कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?
बहुत खूब ...
बहुत सुंदर....
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